आज पूरे विश्व में लोग कोरोना वायरस की महामारी से अत्यंत दुखी तथा भयभीत हैं।  अन्य अन्य देशों की सरकार इस महामारी से बचने  के लिए अथक प्रयास  कर रही है। परन्तु फिर भी यह प्रयास असफल प्रतीत होता दिखाई दे रहा है।  जो व्यक्ति भारत भूमि को छोड़कर बहुत सारा धन अर्जित करने के लिए  दूर पाश्चात्य देशों में नौकरी किया करते थे, वह आज मृत्यु के भय से अपने स्वदेश लौट रहे हैं। जो आधुनिक शहरों में रहा करते थे, उन्हें आज अपने पुराने गाँव की शरण लेनी पड़ी, जहाँ कभी उनके पिताजी या दादाजी ने अपना जीवन व्यतीत किया था।

इस क्षण  हमारे आधुनिक शहर में रहने की गरिमा कहाँ गुम होकर रह गयी, अपनी तथाकथित शिक्षा और प्रगति का गर्व आज क्यूँ नहीं दिखाई दे रहा है ?  आज  इन शहरों में रहने वाले इतने हताश और मजबूर क्यूँ हैं ? हमारे भविष्य की सारी योजनायें आज निष्फल होती दिखाई दे रही है ? क्योंकि आज कोरोना रुपी मृत्यु सामने खड़ी है।  सबसे घोर विडंबना तो यह है कि शहरी जीवन में सारी मूलभूत आव्यश्यकता यथा  फल,सब्जी, दूध, अन्न, आदि। इन सब की पूर्ति बाहर दुकानों और सब्जी ठेलों से होती है और इन संकट के दिनों में यह आपूर्ति भी नहीं हो पा रही है।

बहुत से लोग भूखे रहकर अपना जीवन काट रहे हैं, परन्तु इससे प्रश्न उठता है कि इतना दुःख क्यों ? आज हर समाज के वर्ग के लोग भगवान और बड़े बड़े नेताओं से यही प्रश्न कर रहें कि हम यह कष्ट क्यों भुगत रहे हैं ? करा किसी ओर ने और इसका भुगतान हम क्यूँ करें ? परन्तु आज हम सभी इस महामारी के बराबर सहभागी हैं। हम उस आधुनिक सभ्यता का अंश हैं, जिसने प्रकृति का शोषण कर इतनी प्रगति कर ली है कि प्रकृति  हमें पुरुस्कार में ढेरों प्राक्रतिक आपदाएं, असमय गर्मी-वर्षा  और ठण्ड प्रदान करती रहती है। क्या यही है हमारी समृद्धि का  उचित फल  ?

इस विषय में  इस्कॉन  के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद लॉस एंजेल्स में 2 मई, 1973 को अपने प्रवचनों में बताते हैं-  “मनुष्य की समृद्धि प्राकृतिक उपहारों से बढ़ती है न कि विशाल औद्योगिक उद्यमों और कारखानों द्वारा। यह विशाल औद्योगिक उद्यम एक नास्तिक और ईश्वर विहीन सभ्यता का परिणाम हैं, और वे मनुष्य जीवन के महान उद्देश्यों को नष्ट करने का कारण बनते हैं।हम जितना अधिक अपना समय, शक्ति एवं ऊर्जा को बड़ी बड़ी औद्योगिक क्षेत्रों को बढाने में लगायेंगे, उतना ही सामान्य रूप से लोगों में असंतोष बढेगा, हालांकि कुछ चुनिंदा लोग ही शोषण से बच सकते हैं। अनाज, सब्जियाँ, फल, नदियाँ, जवाहरात और खनिजों की पहाड़ियाँ, और मोती से भरे समुद्र जैसे प्राकृतिक उपहार उस परम भगवान के आदेश से हमें प्रदान किये किए जाते हैं, और उनकी इच्छा मात्र से ही, भौतिक प्रकृति उन्हें प्रचुर मात्रा में धन, धान्य, हीरे, मोती आदि उत्पन्न करती है और भगवान की इच्छानुरूप उन्हें प्रतिबंधित भी करती है। इस सृष्टि के प्राकृतिक नियम यही है कि मनुष्य प्रकृति के इन ईश्वरीय उपहारों का लाभ उठाये, न की अपनी दुर्बुद्धि से प्रकृति को हड़पने का प्रयत्न करे। हम जितना अपनी सनक के अनुसार प्रकृति का शोषण करने का प्रयास करेंगे, हम उतना ही उसका दुष्प्रभाव अपने सामने देखेंगे और उसका भुगतान करेंगे।जब हमारे पास पर्याप्त मात्र में अनाज, फल, सब्जियां और औषधियां हैं तो हमें बड़े पैमाने में कत्लखाने खुलवाकर निर्दोष पशुओं को मारने की क्या आव्यश्यकता है ? एक मनुष्य को निर्दोष पशुओं को मारने की आव्यश्यकता नहीं है अगर उसके पास खाने के लिए पर्याप्त अनाज और सब्जियां हैं। नदी के पानी का प्रवाह खेतों को सींचित  रखता है, और हमारी आवश्यकता से अधिक है। खनिजों का उत्पादन पहाड़ियों और समुद्र में रत्नों से होता है। यदि मानव सभ्यता के पास पर्याप्त अनाज, खनिज, जवाहरात, पानी, दूध आदि हैं, तो हमें कुछ दुर्भाग्यपूर्ण पुरुषों के श्रम की कीमत पर भयानक औद्योगिक उद्यमों के लिए गधा मजदूरी क्यों करनी चाहिए ?

लेकिन यह सब प्राकृतिक उपहार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण की कृपा से संभव है। बस, हमें उनके आदेशों का पालन करने की आव्यश्यकता है और उनके गुण, नाम, लीला आदि का श्रवण और कीर्तन करते हुए मानव संसिद्धि के परम लक्ष्य (भगवान की सेवा) को प्राप्त करना है। अगर हम भगवान के पूर्ण शरणागत होंगे तो सारी समस्याएं अपने आप दूर हो जाएँगी।  कृष्ण हमें बड़ी सरलता से अनाज, फल एवं घास प्रदान कर सकते हैं। गाय घास और फूस को खाकर संतुष्ट हो जाती है। बैल हमें खेती में अनाज उगाने के लिए सहायता प्रदान कर सकते हैं और वह बहुत कम जो भी आप उन्हें देंगे उससे संतुष्ट हो जाते हैं। अगर आप अनाज-फल खाकर उसका छिलका फेंक देते हैं तो पशु उन्हें खाकर संतुष्ट हो जाते हैं। इस तरह भगवान को केंद्र में रखते हुए सारे जीव मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़ सभी आदान प्रदान करते हुए संतुष्ट रह सकते हैं। यही वैदिक सभ्यता है , यही कृष्णभावनाभावित सभ्यता है।”

यहाँ श्रील प्रभुपाद वैदिक सनातन वर्णाश्रम कृषि समुदाय का वर्णन कर रहे थे, जिनका उद्देश्य शास्त्रों द्वारा भगवान के आदेशों का पालन करना तथा  इस वैदिक समाज को व्यवस्थित रखना है। सादा जीवन और उच्च विचार पर आधारित  यह समाज संघटित किया जा सकता है । परन्तु क्या ऐसा संभव है ? जी अवश्य।

श्रील प्रभुपाद के प्रिय शिष्य श्रील भक्ति विकास स्वामी महाराज के मार्गदर्शन में कई ऐसी कृष्णभावनामृत कृषि समुदाय भारत के कोने कोने में सुचारू रूप से कार्य कर रही है। जिनमे से प्रमुखतः नंदग्राम कृषि समुदाय जो वड़ोदरा गुजरात से कुछ मील दूर पर स्थित है। जहाँ २०-२५ परिवार मिलकर वैदिक रूप से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। जैसा हम वैदिक काल में देखते थे ग्रामीण जीवन बिना किसी आधुनिक सुख सुविधा के, पूर्ण  भगवान कृष्ण पर निर्भर होकर  यह सादा जीवन जी रहे हैं। साथ ही साथ इसमें पशुपालन, पर्यावरण की रक्षा सम्मिलित है। वास्तव में ऐसा ही समाज प्राकृतिक आपदाओं और महामारी से मुक्त रहकर सदैव भगवान का भजन करने में संलग्न रह सकता है। यह भक्त गण इस आधुनिक समाज का हिस्सा नहीं है, अतएव वे हमेशा तनाव मुक्त और प्रसन्नचित्त होकर रह रहे हैं। वहां रह रहे बच्चों को बचपन से ही भगवद् गीता और रामायण की शिक्षाएं प्रदान की जा रही है। ऐसे अनेक कृषि समुदाय हैं, नन्द गोकुलम, कुर्मग्राम, गौरग्राम, बद्रिकाश्रम, नवगोकुल फार्म (Czech Republic) आदि।

इन्हें आधुनिक प्रकृति और समाज को शोषण एवं हनन करने वाली शिक्षा नहीं दी जाती है। यह समझ चुके हैं कि शहरी भौतिकतावादी जीवन  स्वाभाविक नहीं है।  और यह बात सत्य है  कि हमें बचपन से ऐसी विध्वंसकारी शिक्षाएं दी जाती है  की प्रकृति का हनन कैसे किया जाए ? कैसे समुद्र से पेट्रोल निकालकर वायु को प्रदूषित किया जाए ? कैसे उपजाऊ भूमि को रसायन दवाइयां डालकर उसे बंजर किया जाये ? कैसे जंगल के पेड़ों को काटकर औद्योगिक क्षेत्रों को खोला जाये  एवं जंगल में रहने वाले निर्दोष पशुओं को कत्लखाने में जाकर उनकी हत्या कर दी जाए। समुद्र में रहने वाले जीव, भूमि में रहने वाले जीव, आकाश में उड़ने वाले जीव सभी हमारी संपत्ति हैं और हमें उन्हें जैसा चाहे वैसा उपयोग करना चाहिए ऐसा हमें सिखाया जाता है। इससे सरकार,समाज, परिवार को कोई आपत्ति नहीं है, तो एक बुद्धिमान विवेकी व्यक्ति इस समाज का हिस्सा कैसे बन सकता है। अतः उसे अपना जीवन सार्थक करने के लिए प्रमाणिक गुरु की शरण लेकर आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहिए और सदैव भगवान के शुद्ध नाम – हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का निरंतर रूप से जप करना चाहिए।

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