श्रीप्रह्राद उवाच
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥

प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण जो लोग भौतिकतावादी जीवन के प्रति अत्यधिक लिह्रश्वत रहते हैं, वे नरकगामी होते हैं और बार-बार उसे चबाते हैं, जिसे पहले ही चबाया जा चुका है। ऐसे लोगों का कृष्ण के प्रति झुकाव न तो अन्यों के उपदेशों से, न अपने निजी प्रयासों से, न ही दोनों को मिलाकर कभी होता है।

तात्पर्य : इस श्लोक में मतिर्न कृष्णे शब्द कृष्ण के प्रति की गई भक्ति को बताते हैं। जो भी तथाकथित राजनीतिज्ञ, प्रकांड पंडित तथा दार्शनिक भगवद्गीता को पढ़ते हैं, वे अपने भौतिक अभिप्रायों के उपयुक्त कोई न कोई अर्थ निकालने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु कृष्ण विषयक उनका यह भ्रम उन्हें कोई लाभ नहीं दिलाता। चूँकि ये सभी लोग भगवद्गीता को भौतिक रीति से तालमेल बैठाने के साधन के रूप में प्रयुक्त करने में रुचि रखते हैं अतएव उनके लिए कृष्ण या कृष्णभावनामृत का निरन्तर विचार करना असम्भव है (मतिर्न कृष्णे )। जैसाकि भगवद्गीता (१८.५५) में में कहा गया है—भक्त्या मामभिजानाति—कोई कृष्ण को यथारूप में भक्ति के द्वारा ही समझ सकता है। तथाकथित राजनीतिज्ञ तथा विद्वान कृष्ण को काल्पनिक मानते हैं। राजनीतिज्ञ कहता है कि उनका कृष्ण भगवद्गीता में अंकित कृष्ण से भिन्न है। यद्यपि वह कृष्ण तथा राम को परमेश्वर मानता है किन्तु वह उन्हें निराकार समझता है, क्योंकि उसे कृष्ण की सेवा का कोई अनुमान नहीं रहता। अतएव उसका एकमात्र कार्य रहता है—पुन: पुनश्चॢवतचर्वणानाम्—चबाये हुए को बार-बार चबाना। ऐसे राजनीतिज्ञों तथा विद्वानों का लक्ष्य अपनी शारीरिक इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत का भोग करना होता है। इसलिए
यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि जो गृहव्रत हैं, अर्थात् जिनका एकमात्र लक्ष्य भौतिक जगत में इस शरीर के साथ सुखपूर्वक जीवन बिताना होता है वे कृष्ण को समझ नहीं सकते। गृहव्रत तथा चॢवतचर्वणानाम् दोनों ही पद सूचित करते हैं कि भौतिकतावादी पुरुष जन्म-जन्मांतर विभिन्न शरीरों में इन्द्रियतृह्रिश्वत भोगना चाहते हैं, किन्तु फिर भी वे असन्तुष्ट रहते हैं। व्यक्तिवाद के नाम पर ऐसे लोग जीवन की भौतिकतावादी शैली के प्रति सदैव आसक्त रहते हैं। जैसाकि भगवद्गीता (२.४४) में कहा
गया है—

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥

”जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं और जो ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके मनों में परमेश्वर की भक्ति का ²ढ़ संकल्प नहीं उत्पन्न होता। जो लोग भौतिक भोग में लिह्रश्वत हैं, वे भगवान् की भक्ति में ²ढ़ नहीं हो सकते। वे न तो भगवान् कृष्ण को समझ सकते हैं न उनके उपदेश भगवद्गीता को। अदान्त गोभिॢवशतां तमिस्रम्—उनका मार्ग सचमुच नारकीय जीवन की ओर ले जाने वाला है। जैसाकि ऋषभदेव ने पुष्टि की है—महत्सेवां द्वारमाहुॢवमुक्ते:—मनुष्य को चाहिए कि किसी भक्त की सेवा करके कृष्ण को समझने का प्रयत्न करे। महत् शब्द भक्त के लिए आया है।

महात्मानस्तुं मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥

”हे पृथापुत्र! जो मोहग्रस्त नहीं हैं ऐसे महात्मा दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतया भक्ति में लगे रहते हैं, क्योंकि वे मुझे आदि अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं। (भगवद्गीता ९.१३) महात्मा वह है, जो चौबीसों घण्टे भक्ति में लगा रहता है। जैसाकि अगले श्लोकों में बताया गया है, जब तक कोई ऐसे महापुरुष के पीछे लग नहीं जाता, वह कृष्ण को नहीं समझ सकता। हिरण्यकशिपु जानना चाह रहा था कि प्रह्लाद ने कृष्णभावनामृत कहाँ से प्राह्रश्वत किया? किसने उसे सिखाया था? प्रह्लाद ने व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया ”हे पिता! आप जैसे व्यक्ति कृष्ण को कभी नहीं समझ पाएँगे। केवल महत् अर्थात् महात्मा की सेवा करके कृष्ण को समझा जा सकता है। जो लोग भौतिक
परिस्थितियों से समझौता करनेका प्रयास करते हैं, वे चबाये हुए को चबाते हुए कहे जाते हैं। आज तक कोई भी व्यक्ति भौतिक परिस्थितियों को समंजित नहीं कर पाया, किन्तु लोग जन्म-जन्मांतर, पीढ़ीदर- पीढ़ी प्रयास करते हैं और बारम्बार असफल होते हैं। जब तक मनुष्य किसी महत्—महात्मा या भगवान् के अनन्य भक्त—द्वारा प्रशिक्षित नहीं किया जाता तब तक उसके द्वारा कृष्ण तथा उनकी भक्ति को समझ पाने की सम्भावना नहीं है।

स्रोत : श्रीमद भागवतम 7.5.30

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