जो लोग श्रीराम द्वारा सीता त्याग की घटना के कारण श्रीराम को भगवान नहीं मानते यहां उन लोगों के लिए एक प्रमाणित स्पष्टीकरण है।
रामायण में श्रीराम द्वारा सीता का त्याग कदाचित सर्वाधिक भ्रामक घटना है। किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे आरोप के लिए अपनी गर्भवती पत्नी का त्याग करना जो सिद्ध नहीं हुआ है, असंगत एवं अत्याचार प्रतीत होता है।
ख्याति
श्रीराम ने ऐसा क्यों किया ? क्या वे अपनी ख्याति से अत्यधिक आसक्त थे? क्या उन्होंने सीता का त्याग केवल इसलिए कर दिया क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं उनकी पत्नी के चरित्र पर उठी उंगली उनके ऊपर कलंक ना लगा दे ? परंतु यदि उनमें ख्याति की तड़प उतनी ही अधिक थी तो उन्होंने सीता का त्याग करके दूसरा विवाह क्यों नहीं किया ? कोई भी राजा चाहेगा कि उसकी सुंदर रानी उसके साथ रहकर उसकी ख्याति को बढ़ाये; रानी-विहीन राजा बमुश्किल अपनी ख्याति बड़ा पाता है। श्रीराम शक्तिशाली सम्राट थे। उनके पास सारे ऐश्वर्य थे। वे चाहते तो मनचाही स्त्री से विवाह कर सकते थे। किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे सीता को दिया गया अपना वचन निभाना चाहते थे। विवाह के पश्चात श्री राम ने सीता को वचन दिया था कि सीता उनकी एकमात्र पत्नी रहेंगी। आजीवन इस प्रतिज्ञा का पालन करके श्री राम ने सीता देवी के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया और अपने आरोपों को अवैध सिद्ध किया।
यदि श्री राम पुनर्विवाह करना चाहते तो धर्म की आड़ में वे वैसा कर सकते थे। राज्य की समृद्धि के लिए यज्ञ करना राजा का प्रमुख कर्तव्य है और वैदिक निर्देश है कि यज्ञ धर्म पत्नी के साथ ही किए जाते हैं। यज्ञ के समय जब पुरोहितों ने श्री राम को इस वैदिक निर्देश का स्मरण दिलाया तो श्रीराम ने सम्मान एवं दृढ़तापूर्वक दूसरा विवाह करने से मना कर दिया। जहां तक वैदिक निर्देश की बात थी श्रीराम ने सीता देवी की सोने की मूर्ति बनवाई और यज्ञ के दौरान वे उसे अपने साथ रखकर बैठते। सीता देवी की मूर्ति के द्वारा सीता देवी का सम्मान करके उन्होंने यह दर्शाया कि वे अभी भी उन्हें अपनी पत्नी मानते थे। इतना ही नहीं अब भी सीता देवी को पवित्र मानते हैं इतना पवित्र कि उन्होंने उनकी मूर्ति को पवित्र यज्ञ में उनके निकट बैठने की अनुमति दी।
नैतिक संकट
श्रीराम सीता को पवित्र मानते थे तो फिर उन्होंने उनका त्याग क्यों किया ? क्योंकि उनके सम्मुख खड़े उस नैतिक संकट का अन्य कोई समाधान नहीं दिख रहा था। हमें इस कथा के चरित्रों द्वारा किए गए कार्यों को उस समय की संस्कृति तथा मूल्यों के प्रकाश में देखना होगा रामायण एक गहन आध्यात्मिक संस्कृति को प्रदर्शित करती है। उस समय लोग केवल सांसारिक उपलब्धियों एवं समृद्धि को ही सफलता नहीं मानते थे, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों एवं गुणों के विकास को सफलता मानते थे। आध्यात्मिक मूल्यों एवं गुणों के विकास का अर्थ है सृष्टि के स्रोत भगवान के प्रति भक्ति एवं सेवा भावना विकसित करना और उनके सामंजस्य में पूरा जीवन व्यतीत करना। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने संबंधों एवं उपाधियों को भगवान तथा उनसे जुड़े लोगों की सेवा के अवसर के रूप में देखता है। ऐसी ही एक सेवा है वैराग्य का आदर्श स्थापित करने की सेवा, विशेष रूप से उन वस्तुओं से वैराग्य जो व्यक्ति के आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में आती हैं।
अधिकांश लोग इस संसार में अपने पारिवारिक संबंधों एवं उपाधियों से आसक्त होते हैं। ऐसी आसक्तियाँ उन्हें भगवान् से काटकर रखती है।
वस्तुतः भगवान् ने हमे परिवार दिया है और मृत्यु के पश्चात जब हमारे सारे परिजन हमें छोड़ देते हैं उस समय भगवान ही हमारे एकमात्र आश्रय होते हैं। भौतिक रूप से आसक्त लोग सामान्यता धनी एवं समृद्ध लोगों से आकर्षित होते हैं। और राजा से धनी एवं समृद्ध कौन हो सकता है ?यदि राजा आध्यात्मिक मार्ग में बाधा बन रही भौतिक वस्तुओं का त्याग करके वैराग्य का आदर्श स्थापित करता है तो नागरिकों को सहज ही संदेश प्राप्त हो जाता है कि जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य अध्यात्मिक विकास है। इस प्रकार राजा के अन्य कर्तव्यों में से एक कर्तव्य अपने नागरिकों के समक्ष यह उदाहरण स्थापित करना है कि सांसारिक आसक्तियाँ उसे धर्म पालन से विचलित नहीं कर सकती। श्री राम का राज धर्म उनके पति धर्म से टकराने लगा।
जब श्रीराम ने सीता पर लगाए आरोप सुने तो वे धर्म संकट में फंस गए। कई बार हमारे सामने नैतिक और अनैतिक में से किसी एक को चुनने का संकट आता है परंतु यहां श्री राम को जिन दो कार्यों में से एक का चुनाव करना था वे दोनों नैतिक थे। ऐसी परिस्थिति में हमें अपनी विवेक बुद्धि द्वारा उच्च नैतिक सिद्धांत को समझना होगा और यथासंभव निम्न नैतिक सिद्धांत को भी बनाए रखने का प्रयास करना होगा। श्री राम के सामने यह धर्म संकट था कि वह अपने राजधर्म का पालन करें या पति धर्म का।
पतिधर्म पत्नी की रक्षा की पुकार लगा रहा था, जबकि राजधर्म नागरिकों के सम्मुख वैराग्य का आदर्श स्थापित करने की मांग कर रहा था। यदि उनके नागरिक यह देखते कि श्री राम सीता के अपवित्र होने के बावजूद भी उसे अपने पास रख रहे हैं तो हो सकता था कि नागरिक भी श्री राम की कथित आसक्ति की आड़ में अपनी अनावश्यक आसक्तियों को सही सिद्ध करने का प्रयास करते। खैर, सीता अपवित्र नहीं थी क्योंकि रावण को श्राप मिला था कि यदि वह किसी भी स्त्री की इच्छा के बिना उसकी पवित्रता भंग करता है उसकी मृत्यु हो जाएगी, इसलिए उसने अनेक प्रलोभनों एवं धमकियों द्वारा सीता को मनाने का प्रयास किया। परंतु सीतादेवी ने पूरे एक वर्ष तक उसके प्रलोभनों को ठुकराते एवं धमिकयों को सहते हुए अपनी पवित्रता कायम रखी। श्री राम को सीता की पवित्रता पर कोई संदेह नहीं था। परंतु लोगों की आपत्तियों का अनुमान लगाते हुए उन्होंने रावण वध के बाद सबके सम्मुख सीता को अग्नि परीक्षा देने के लिए कहा। इतना ही नहीं परीक्षा के बाद ब्रह्मा जी एवं अन्य देवताओं ने सीता के निष्कलंक चरित्र को प्रमाणित कर दिया।
इतना होने पर भी जब लोग सीता की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे तो श्रीराम ने अनुभव किया कि लोगों को विश्वास दिलाना संभव नहीं है। यदि लोगों को अनसुना करके सीता के साथ रहना जारी रखते हैं तो लोग उन्हें आसक्त कहेंगे। यदि वे लोगों को चुप कराते हैं तो वह आसक्ति के साथ उनकी क्रूरता कहीं जाएगी। उन्होंने विचार किया कि राज धर्म का पालन करने के लिए उन्हें सीता के प्रति अपनी अनासक्ति प्रदर्शित करनी ही होगी।
आत्मसंयम एवं त्याग का प्रदर्शन करते हुए श्रीराम ने अनुभव किया कि उनका राज धर्म पति धर्म से अधिक महत्वपूर्ण है और उन्होंने सीता को वन में भेज दिया। परंतु उन्होंने अपने पति धर्म का पूरी तरह त्याग नहीं किया; उन्होंने उसका भी पालन किया क्योंकि परित्यक्त सीता अभी भी उनके राज्य में रह रही थी और अप्रत्यक्ष रूप से उनके संरक्षण में थी।
जब दुखी लक्ष्मण ने सीता को श्रीराम का निर्णय बताया तो सीता बुरी तरह टूट गई परंतु शीघ्र ही उन्होंने स्वयं को संभाला और अपने स्वामी के हृदय को समझते हुए शांत चित्त से उस निर्णय को स्वीकार कर लिया। वे जानती थी कि त्याग के इस कार्य में उन्हें अपने पति का साथ देते हुए अपनी भूमिका निभानी होगी। ना तो उन्हें श्री राम पर क्रोध आया और ना ही उन्होंने अपने बच्चों के मन में पिता के प्रति विष भरा। उन्होंने बच्चों को स्नेहपूर्वक पाला-पोसा और अकेली माँ होते हुए भी उन्हें सारे संस्कार दिए।
खैर, वे आधुनिक दुनिया की अकेली माताओं के समान अकेली नहीं थी। ऐसा नहीं था कि अकेले परिश्रम करके अपने एवं बच्चों का पेट पालना था। त्याग किए जाने के बाद वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रही जहां अन्य स्त्रियों ने उनकी देखभाल की और बच्चों के लालन-पालन में उनकी सहायता की ।
एक दृष्टि से सीता के त्याग को देश निकाला नहीं कहा जा सकता। श्री राम को प्राप्त चौदह वर्ष के वनवास को देश निकाला कहा जा सकता है, परंतु सीता तो अभी भी श्री राम के राज्य में ही रह रही थी। उन्हें भोजन, वस्त्रों एवं घर के लिए भागदौड़ नहीं करनी पड़ी; वाल्मीकि आश्रम में वह सब उन्हें सहज प्राप्त होने लगा।
बलिदानी कहें, दुखियारे नहीं
संपूर्ण रामायण त्याग और बलिदान की भावना से भरी है और सीता-राम का बिछड़ना उसकी पराकाष्ठा है। पूरे ग्रंथ में कहीं भी अधिकारों की मांग नहीं की गई है, अपितु उच्च उद्देश्य के लिए अपने अधिकारों के त्याग के उदाहरण है।
जब पिता दशरथ द्वारा दिए गए वचन के कारण श्री राम को वनवास मिला उन्होंने राजकुमार के रूप में अपने अधिकारों की बात नहीं की। वे कह सकते थे,” मै पूरी तरह निर्दोष हूं और फिर भी मुझे ऐसे देशनिकाला दिया जा रहा है मानो मैंने जघन्य अपराध किया है। और यह भी केवल उस वचन के लिए जो ना जाने कब मेरे पिता ने मेरी सौतेली मां को दिया था। कितना बड़ा अन्याय है!” बहस करना तो दूर श्री राम ने अपने पिता के वचनों का सम्मान करते हुए तुरंत अपना अधिकार त्याग दिया। यहां तक कि उन्होंने दशरथ का विरोध करने वालों को भी शांत किया।
श्री राम को मिले वनवास का समाचार सुनकर सीता देवी ने भी अपने अधिकारों की मांग नहीं की। उन्होंने नहीं कहा कि वे राजसी ठाठ-बाठ में पली राजकुमारी हैं। वन में अपने पति का साथ देने के लिए उन्होंने स्वेच्छा से प्रसन्नता पूर्वक उन सुखों को त्याग दिया।
श्री राम के साथ वनगमन कर के लक्ष्मण ने भी बलिदान की भावना का प्रदर्शन किया। सीता द्वारा सुख -दुख में अपने पति के साथ रहना स्वाभाविक था, परंतु श्रीराम के छोटे भाई से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। तथापि लक्ष्मण ने अपने राजसी सुखों को एवं अधिकारों का त्याग कर दिया और श्रीराम की सेवा हेतु उनके साथ वनगमन किया।
भरत की त्याग भावना भी अत्यंत उत्कट थी। उनके लिए राजसिहांसन तैयार था। वे कह सकते थे की उन्हें विधाता की इच्छानुसार राज्य प्राप्त हो रहा है और उन्होंने उसे प्राप्त करने के लिए कोई खेल नहीं खेला है। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहां तक कि श्रीराम द्वारा उन्हें राज्य दिए जाने के बाद भी उन्होंने सुख-सुविधाओं को स्वीकार नहीं किया। श्रीराम की पादुकाओं को सिहासन पर रखकर और उनके चरणों में बैठकर राजा के सारे उत्तरदायित्वों का भली-भांति निर्वाह किया। अयोध्या के बाहर कुटिया में रहते हुए भरत ने चौदह वर्षों तक अपने बड़े भाई के समान अत्यंत तपस्या भरा जीवन व्यतीत किया।
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इनमें से किसी ने कभी यह नहीं सोचा कि उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया गया है। अपितु इन सभी ने एक उच्च उद्देश्य के लिए स्वेच्छा से अपने अधिकारों का त्याग किया। इसी प्रकार पति द्वारा त्यागे जाने के बाद सीता देवी ने भी स्वयं को अपने पति के सनकी न्याय का शिकार नहीं माना। स्वयं को इस बलिदान का एक हिस्सा मानते हुए उन्होंने साहस एवं शांत हृदय से इसे स्वीकार किया। जो लोग कहते हैं कि सीता पर अत्याचार हुआ वे उनके चरित्र की अद्भुत शक्ति के प्रति बहुत बड़ा अन्याय करते हैं।
और यदि यह लोग श्रीराम को अत्याचारी कहते हैं तो और भी भारी गलती करते हैं। इस घटना में श्रीराम की स्थिति सीता जैसी ही थी। त्याग का उदाहरण स्थापित करने के लिए जितना बड़ा त्याग सीता ने किया उतना ही बड़ा त्याग श्रीराम ने भी किया। कदाचित श्री राम को वनवास भेजते समय दशरथ को जितनी पीड़ा हुई थी, सीता को वन भेजते समय श्रीराम को भी उतनी ही पीड़ा हुई।
जिस प्रकार दशरथ श्रीराम को अपने प्राणों से अधिक प्रेम करते थे उसी प्रकार श्रीराम जी सीता को अपने प्राणों से अधिक प्रेम करते थ। सीता ने उनके लिए तेरह वर्ष वनवास के कष्ट सहन किए और एक वर्ष रावण के यहां बंदी बनकर भयंकर यातनाएं झेली थी। जिस प्रकार कर्तव्य से बंधे दशरथ ने फिर हृदय पर पत्थर रखकर श्रीराम को वन भेजा उसी प्रकार श्रीराम भी कर्तव्य से बंधे थे। कम-से-कम दशरथ कैकयी के द्वेष पर अपना क्रोध तो निकाल सके, परंतु श्रीराम तो वह भी नहीं कर सकते थे। किसपर क्रोध निकालते वे अपना? यदि वे लोगों पर अपना क्रोध निकालते तो वे क्रूर कहे जाते। इसलिए उन्हें न केवल सीता को त्यागने का हृदय विदारक आदेश देना पड़ा अपितु अपने ह्रदय में उमड़ रहे क्रोध, पीड़ा तथा विरह दुख के तूफान को भीतर ही दबाना पड़ा।
जिस प्रकार दशरथ श्री राम को दंडित नहीं कर रहे थे, उसी प्रकार श्रीराम भी सीता को दंडित नहीं कर रहे थे। जिस प्रकार पिता-पुत्र को उच्च उद्देश्य के लिए पीड़ादायक त्याग करना पड़ा था, उसी प्रकार पति-पत्नी को भी एक उच्च उद्देश्य के लिए यह पीड़ादायक त्याग करना पड़ा।
शास्त्रीय कारण
जो लोग पूर्व जन्मों की घटनाओं के आधार पर कारण खोजते हैं उनके लिए वाल्मीकि रामायण में इसका रहस्य बताया गया है रामायण ( 6.51.15) में उस शाप का वर्णन है जिसके कारण विष्णु एवं लक्ष्मी को विरह सहना पड़ा। एक समय असुरगण इंद्र एवं अन्य देवताओं से भाग रहे थे और उन्होंने भृगु मुनि की पत्नी ख्याति का आश्रय लिया। जब देवताओं ने ख्याति से कहा कि वह असुरों को उन्हें सौंप दें तो ख्याति का मन अनुचित करुणा से भर उठा। अपनी योग शक्तियों का आह्वान कर वे देवताओं पर आक्रमण करने लगी और घबराकर सब देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली। ख्याति के नासमझ संरक्षण के कारण देवता जीता हुआ युद्ध हारने लगे। देवताओं को इस आपदा से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा ख्याति का वध कर दिया। पता चलने पर भृगुमुनि क्रुद्ध हो उठे उन्होंने भगवान विष्णु को शाप दिया कि वे इस भौतिक संसार में अनेक जन्म लेंगे और एक जन्म में उन्हें उनके समान अपनी पत्नी से विरह का दुख भोगना पड़ेगा।
वस्तुतः श्रीराम परमेश्वर हैं और वह किसी के शाप से बांध नहीं सकते। तथापि मुनि के प्रति सम्मान दिखाते हुए तथा अपनी लीलाओं को रोचक बनाने के लिए उन्होंने उस शाप को स्वीकार किया।
गौड़ीय वैष्णव परंपरा के अनुसार सीता-राम का अलग होना विरह भक्ति का एक पहलू है। विरह भक्त के हृदय में भगवान के स्मरण को बढ़ाता है। और चूँकि भगवान परमेश्वर हैं और प्रत्येक भक्त के हृदय में स्थित हैं, इसलिए जब कोई भक्त तीव्रता से उनका स्मरण करता है तो वे स्वयं को उस भक्त के हृदय में उतना अधिक उजागर करते हैं। इस प्रकार भक्त की भक्ति तीव्र होती जाती है। बाह्य रूप से यह विरह पीड़ादायक दिखेगी परंतु अंतःकरण में वह मिलन की पराकाष्ठा होती है। जिस प्रकार हवा अग्नि को प्रचंड बनाती है उस प्रकार विरह प्रेम को उत्कट बनाता है। उसे अधिकाधिक फैलाता है। श्रीराम से दूर होने पर सीतादेवी इस उत्कट भक्ति एवं प्रेम का आस्वादन कर रही थी।
स्त्रियों के प्रति अन्याय
कुछ लोग इस घटना का हवाला देते हुए कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को दबाकर रखा जाता था। परंतु क्या श्रीराम द्वारा सीतात्याग की घटना को मानदंड बनाकर उन स्त्रियों को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है जिन पर संदेह की पुष्टि नहीं हुई है? बिल्कुल नहीं । यह लीला प्रमुखता त्याग की भावना प्रदर्शित करने के लिए है। हम इस घटना में श्रीराम द्वारा लिए गए निर्णय को आंख बंद करके सर्वत्र लागू नहीं कर सकते। स्त्रियों के साथ किस प्रकार व्यवहार किया जाए श्रीराम ने अन्य अनेक उदाहरणों द्वारा स्वयं यह दिखाया है।
जिस रामायण में श्रीराम द्वारा सीता त्याग की घटना का वर्णन है उसी रामायण में समाज द्वारा त्यागी गई अनेक स्त्रियों पर श्रीराम की करुणा और दया के उदाहरण दिए गए हैं।
गौतम ऋषि की पत्नी दुर्घटना वश अपनी पवित्रता खो बैठी और फलस्वरूप ऋषि ने उसे शाप देकर पत्थर बना दिया। श्रीराम ने करुणावश उसे इस शाप से मुक्त किया और पुनः ऋषि-पत्नी का सम्माननीय पद प्रदान किया। वन में रहने वाली शबरी का जन्म नीच जाति में हुआ था परंतु फिर भी भगवान राम ने उसकी आवभगत स्वीकार की और उसके हाथों से बेर खाए। वालि की मृत्यु के पश्चात उसकी विधवा तारा को श्रीराम ने संरक्षण का वचन दिया और किष्किन्धा के महल में एक सम्मानजनक स्थान दिया। उस समय संस्कृति को देखते हुए श्रीराम के यह कार्य अत्यंत दुर्लभ एवं उदार थे।
भक्ति ग्रंथ बताते हैं जो परम सत्य त्रेता युग में श्रीराम बनकर आए वही द्वापर में श्री कृष्ण बनकर आए और श्रीकृष्ण ने समाज द्वारा परित्यक्त स्त्रियों के प्रति और अधिक करुणा का भाव प्रकट किया। एक बार भौमासुर द्वारा बंदी बनाए गए अनेक राजाओं ने श्रीकृष्ण को संदेश लिखकर उन्हें मुक्त करवाने का निवेदन किया। भौमासुर का वध करके श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को मुक्त कर दिया। भौमासुर के किले की छानबीन करने पर श्रीकृष्ण को १६,000 राजकुमारियां मिली जिन्हें भौमासुर ने अपहरण करके बंदी बनाया हुआ था। उन दिनों ऐसी परंपरा थी कि यदि कोई युवती अकेले एक रात भी घर से बाहर रहती है तो कोई उससे विवाह नहीं करता था। भौमासुर एक शुभ दिन की प्रतीक्षा कर रहा था जब वह सब राजाओं की बलि देकर राजकुमारियों का भोग करेगा। यद्यपि भौमासुर ने अभी तक इन राजकुमारियों की पवित्रता भंग नहीं की थी तथापि अब समाज उन्हें स्वीकार करने वाला नहीं था।
राजकुमारियों ने असुर के बंधन से मुक्त करने के लिए श्रीकृष्ण को धन्यवाद दिया और फिर उनसे याचना की कि वे उन्हें इस दुखद परिस्थिति से भी मुक्त करे। जब श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहती हैं, राजकुमारियों ने कहा उनकी एकमात्र यही इच्छा है कि श्रीकृष्ण उन्हें अपनी दासी बना ले। श्रीकृष्ण ने उन्हें दासी नहीं अपितु अपनी रानी बना लिया।
आइए सीतादेवी एवं इन राजकुमारियों के साथ किए गए भगवान श्रीकृष्ण के व्यवहार की तुलना करे।
1. उन्होंने सीता को अग्नि परीक्षा के लिए कहा, परंतु उन्होंने इन राजकुमारियों को ऐसी परीक्षा देने के लिए नहीं कहा।
2. सीता पहले से ही उनकी रानी थी, फिर भी भगवान ने उन्हें दूर भेज दिया। दूसरी ओर इन राजकुमारियों का भगवान से कोई संबंध नहीं था फिर भी भगवान ने उन्हें अपनी रानी बना लिया।
3. सीता गर्भवती थी और भगवान का उनके प्रति बड़ा उत्तरदायित्व था। परंतु राजकुमारियों के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं था, फिर भी उन्होंने सम्मान पूर्वक समाज में उन्हें स्थान दिया।
इस तुलना करने का उद्देश्य यह दर्शाना है कि भगवान इतने महान है कि हम अपने भौतिक एवं दूषित दृष्टिकोण से उनके कार्यों का अवलोकन नहीं कर सकते। भगवान के कार्यों को लीला कहा जाता है, अर्थात उनके कार्य निरर्थक नहीं होते उनके पीछे कोई महान उद्देश्य होता है। इसलिए भगवान की विभिन्न लीलाएं उनके विभिन्न गुणों को दर्शाती हैं और श्रीराम की लीला प्रमुखता त्याग के सिद्धांत को दर्शाती है। एक ओर श्रीराम की लीला प्रमुखतःत्याग के सिद्धांत को दर्शाती है तो दूसरी ओर श्रीकृष्ण की लीला करुणा के सिद्धांत को दर्शाती है।
नि:स्वार्थता के लिए प्रेरणा
रामायण में वर्णित त्याग के सुंदर उदाहरण हमें अपने संबंधों में निस्वार्थ होकर व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। आज भी भारत में हमें मजबूत पारिवारिक संबंध दिखाई देते हैं इसका श्रेय रामायण को जाता है। जो अनादि काल से भारतीय समाज को प्रेरित करती आई है। विश्व के अनेक हिस्सों में आज परिवार टूट रहे हैं। परंतु भारत में आज भी स्थिति अच्छी है और पारिवारिक सदस्यों की एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना इसे और सशक्त करती है।
रामायण का आरंभ एक प्रश्न से होता है-आदर्श पुरुष कौन है? और रामायण घोषित करती है कि भगवान राम ही आदर्श पुरुष है। श्रीराम द्वारा सीता का त्याग उनकी आदर्शता के विरोध में नहीं अपितु उसके सामंजस्य में है। देखा जाए तो जो व्यक्ति अपनी पत्नी का त्याग करता है उसे आदर्श नहीं कहा जा सकता। परंतु यदि कोई व्यक्ति निरंतर त्याग के गुण का प्रदर्शन करता है, चाहे उसके जीवन में कुछ भी क्यों ना हो जाए, चाहे इसके लिए उसे अपनी गर्भवती पत्नी का भी त्याग क्यों ना करना पड़े, निश्चित ही वह व्यक्ति असाधारण होगा। और जब पति-पत्नी दोनों मिलकर ऐसी भावना प्रदर्शित करते हैं तो उनके इस महान आदर्श का चिंतन करना निश्चित ही अद्भुत प्रेरणा प्रदान करता है।
श्रीरामचंद्र भगवान की जय !