महारानी कुंती कहती हैं कि ये प्रमाद मदमत्त स्थिति, ”एधमान मद:” बढ़ रही है। ”पुमान नैवार्हति” , ऐसा व्यक्ति कभी भी उत्साहपूर्वक, “जय राधा-माधव” का उच्चारण नहीं कर सकता है। ” वे श्रद्धायुक्त होकर नहीं कर सकते हैं । यह संभव नहीं है । उनकी आध्यात्मिक चेतना पूरी तरह से ढँक गई है। वह कभी भक्तिपूर्वक संबोधन नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे नहीं जानते हैं । उनका विचार है कि, “ओह, भगवान तो केवल गरीब आदमी के लिए है । वे पर्याप्त भोजन नहीं पा सकते हैं । उन्हें चर्च में जाने दो और माँगने दो: ‘हे भगवान, हमें हमारी रोज़ की रोटी दो । परन्तु हमारे पास पर्याप्त रोटी है। तो फिर मैं चर्च क्यों जाऊँ ?”
इसलिए आजकल तथाकथित आर्थिक विकास के दिनों में, कोई भी चर्च या मंदिर जाने में रुचि नहीं रखता है । “यह क्या बकवास है ? क्या मैं रोटी माँगने के लिए चर्च में जाऊँ ? हम आर्थिक हालत का विकास करेंगे और रोटी की पर्याप्त आपूर्ति होगी । ” जैसे साम्यवादी देश, वे ऐसा करते हैं । साम्यवादी देश, वे गांवों में प्रचार करते हैं । वे लोगों को चर्च जाने को और रोटी माँगने को कहते हैं । वे, मासूम लोग, वे सामान्य रूप से माँगते हैं: “हे भगवान, हमें हमारी दैनिक रोटी दो ।” फिर जब वे चर्च से बाहर आते हैं, ये साम्यवादी लोग पूछते हैं: “तुम्हे रोटी मिली ?” वे कहते हैं: “नहीं श्रीमान ।” “ठीक है, हमसे मांगो ।” और फिर वे माँगते हैं: “कृपया मुझे रोटी दो ।” और साम्यवादी लोगों के पास गाड़ी भर कर रोटी है: “जितना चाहे ले लो, लो । तो कौन बेहतर है ? हम बेहतर हैं या तुम्हारे भगवान ?”
वे कहते हैं: “नहीं श्रीमान, आप बेहतर हैं।” क्योंकि उनके पास कोई बुद्धि नहीं है । वे पूछताछ नहीं करते हैं की “हे धूर्त, तुम कहाँ से यह रोटी लाये ? क्या तुमने इसे अपने कारखाने में निर्मित किया है ? क्या तुम अपने कारखाने में अनाज, रोटी की सामग्री, निर्माण कर सकते हो ? “ क्योंकि उन गाँववासियों के पास ज्यादा बुद्धि नहीं है । इसलिए, वे शूद्र कहे जाते हैं । शूद्र मतलब जिनको बुद्धि नहीं है । वे लेते हैं, यथा रुप । लेकिन जो ब्राह्मण है, जो वास्तविक ज्ञान में उन्नत है, वह तुरंत पूछताछ करेंगे: “हे धूर्त, तुम कहाँ से यह रोटी लाए हो ?” यह ब्राह्मण का प्रश्न है । तुम रोटी का निर्माण नहीं कर सकते हो । तुमने केवल भगवान द्वारा प्रदत्त अनाज को बदल दिया है… अनाज, गेहूं भगवान द्वारा दिया जाता है, और तुमने केवल उसे बदल दिया है । लेकिन किसी चीज को बदलने से, वह तुम्हारी संपत्ति नहीं बन जाती है । जैसे मैं किसी बढ़ई या सुथार को कुछ लकड़ी देता हूँ, कुछ औज़ार और वेतन । और उससे उस बढई एक सुन्दर अलमारी को बना दिया। तो बताइये, यह अलमारी किसकी हुई ? बढ़ई की, या उस आदमी की जिसने लकड़ी की सामग्री की आपूर्ति की है ? यह किसका होगा ? बढ़ई यह नहीं कह सकता है कि: ” मैंने इस लकड़ी को अच्छी अलमारी में बदल दिया है, यह मेरी है ।” नहीं । यह तुम्हारी नहीं है ।
इसी तरह, कौन खाद्य अन्न सामग्री की आपूर्ति कर रहा है, मूर्ख ? वह एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं: ”भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ”, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी अपरा प्रकृतियाँ हैं। (भगवद्गीता ७.४) “यह सब मेरी संपत्ति है ।” तुमने इस समुद्र, जमीन, आकाश, अग्नि, वायु को नहीं बनाया है । यह तुम्हारी रचना नहीं है । तुम इन सामग्री पदार्थों को बदल सकते हो, तेजो-वारि-मृदाम विनिमय:, मिश्रण करके या उसे परिवर्तन ला सकते हो। तुम जमीन से मिट्टी लेते हो, तुम समुद्र से पानी लेते हो और मिश्रण करके आग की भट्टी में डाल देते हो । यह एक ईंट बन जाता है और फिर तुम सभी ईंट का ढेर बनाते हो और एक गगनचुंबी इमारत का निर्माण करते हो । लेकिन तुम्हे यह सामग्री मिली कहाँ से, धूर्त, कि तुम दावा कर रहे हो कि यह गगनचुंबी इमारत तुम्हारा है ? यह बुद्धिजीवियों के लिए सोचने की बात है । तुमने भगवान की संपत्ति की चोरी की हैं, और तुम इसे अपनी संपत्ति होने का दावा कर रहे हो। क्या यह ज्ञान है ? वास्तव में यह सबसे बड़ी अज्ञानता है की हम अपने आप को सर्वे सर्वा मान कर बेठे हुए हैं। बल्कि, ऐसा विचार करने वाले चोर हैं, जो भगवान की संपत्ति को अपनी संपत्ति बताकर घर जमाये हुए है। वह चोर हैं, ”स्तेन एव सः” (भगवद्गीता ३.१२)
स्त्रोत- 730418 – श्रीमद्भागवतम प्रवचन १.८.२६, लॉस अन्जेल्स