हर कोई समस्त भौतिक गतिविधियों में लगा हुआ है और भौतिक गतिविधि का बुनियादी सिद्धांत है गृहस्थ, पारिवारिक जीवन । वैदिक प्रणाली या सामान्यतया पारिवारिक जीवन का अर्थ है, अपनी पत्नी और बच्चों का पोषण  करना एवं उनका उत्तरदायित्व उठाना । हर कोई व्यस्त है । वे सोचते हैं कि यह ही मेरा एकमात्र कर्तव्य है । “परिवार का पोषण करना, यही मेरा कर्तव्य है । जितने आराम से संभव हो सके । यही मेरा कर्तव्य है ।” यह कोई नहीं सोचता कि इस तरह का कर्तव्य तो जानवरों द्वारा भी किया जाता है । उनके भी बच्चे हैं, और वे उन्हे खिला रहे हैं । क्या अंतर है ? इसलिए यहां मूढ़ शब्द का उपयोग किया गया है । मूढ का अर्थ है गधा । इस तरह के काम में जो लगे हुए हैं, ”भुञ्जान: प्रपिबन् खादन् ” (श्रीमद्भागवतम ६.१.२६) । प्रपिबन् । प्रपिबन् का अर्थ है पीना, और भुंजान: का अर्थ है खाना । खाते हुए, पीते हुए, खादन्, चबाते हुए, चर्व चस्य राज प्रेय । खाद्य-पदार्थ चार प्रकार के होते हैं । कभी हम चबाते हैं, कभी हम निगलते हैं, कभी हम चाटते हैं, (संस्कृत), कभी हम पीते हैं । तो खाद्य पदार्थ चार प्रकार के होते हैं । इसलिए हम गाते हैं चतु: विधा श्री-भगवत-प्रसादात् । चतु: विघा का अर्थ है चार प्रकार के । इसलिए हम अर्च विग्रह को इन चार श्रेणियों मे से इतने सारे खाद्य पदार्थ अर्पण करते हैं । कुछ चबाए जाते हैं, कुछ चाटे जाते हैं, कुछ निगले जाते हैं ।

तो ”भुञ्जान: प्रपिबन् खादन् बालकं स्‍नेहयन्त्रित: ”  पिता और माता बच्चों की देखभाल करते हैं, कैसे उन्हें खाद्य पदार्थ दें । हमने देखा है माता यशोदा कृष्ण को खिलाती हैं । एक ही बात है । यही अंतर है । हम आम बच्चे को खिला रहे हैं, जो बिल्लियाँ और कुत्ते भी करते हैं लेकिन माता यशोदा कृष्ण को खिला रही हैं । वही प्रक्रिया । प्रक्रिया में कोई अंतर नहीं है, लेकिन एक में कृष्ण केंद्र हैं और दुसरा मनगढ़ंत केंद्र है । अंतर यही है । जब कृष्ण केंद्र में हैं, तो यह आध्यात्मिक है, और जब केंद्र मनगढ़ंत है, तो यह भौतिक है । कोई अंतर नहीं है भौतिक और आध्यात्मिक… यह अंतर है । वहाँ है … जैसे कामुक इच्छाएं और प्रेम, शुद्ध प्रेम । कामुक इच्छाओं और शुद्ध प्रेम के बीच क्या अंतर है ? यहाँ हम मिलते हैं, पुरुष और स्त्री , कामुक इच्छाओं के साथ, और कृष्ण भी गोपियों के साथ मिलते हैं । ऊपर-ऊपर से वे एक ही बात लगते हैं । लेकिन क्या फर्क है ? तो यह अंतर समझाया गया है लेखक द्वारा चैतन्य-चरितामृत में, कि कामुक इच्छाओं और प्रेम के बीच अंतर क्या है ? यह समझाया गया है । उन्होंने कहा है, आत्मेंद्रिय-प्रीति-वांछा तारे-बली ‘काम’ (चैतन्य चरितामृत आदि ४.१६५) “जब मैं अपने इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहता हूँ, तो वह काम है ।” परन्तु कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे ‘प्रेम’ नाम, “और जब हम कृष्ण की इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहते हैं, तो यह प्रेम है, शुद्ध प्रेम ।” अंतर यही है ।

यहाँ इस भौतिक संसार में प्रेम नहीं है क्योंकि पुरुष और स्त्री, उन्हे पता नहीं है कि, “मैं इस पुरुष के साथ मिलती हूं, वह पुरुष जो मेरे साथ इच्छाओं की पूर्ति करता है । ” नहीं । “मैं अपनी इच्छाओं को पूरा करूँगी ।” यह बुनियादी सिद्धांत है । पुरुष सोचता है कि “इस स्त्री के साथ मिलकर, मैं अपनी इन्द्रिय को संतुष्ट करूँगा,” और स्त्री सोच रही है कि “इस पुरुष के साथ मिलकर, मैं अपनी इच्छा को पूरा करूँगी ।” इसलिए यह पश्चिमी देशों में बहुत प्रचलित है, जैसे ही व्यक्तिगत इन्द्रिय तृप्ति में कठिनाई होती है, तुरंत तलाक । यह मनोवैज्ञानिक है, क्यों इतने सारे तलाक होते हैं इसे देश में । मूल कारण यह है कि “जैसे ही मुझे संतुष्टि नहीं मिलती है, तो यह पुरुष या  स्त्री मुझे नहीं चाहिए ।” यह श्रीमद-भागवतम् में कहा गया है कि: दां-पत्यं रतिं एव हि  (श्रीमदभागवतम् १२.२.३)। इस कलियुग में, पति और पत्नी का अर्थ है मैथुन भोग, व्यक्तिगत कामतृप्ति । यहाँ कोई सवाल ही नहीं है कि “हम एक साथ रहेंगे; हम प्रशिक्षित होकर कृष्ण को संतुष्ट करने का प्रयास करेंगे।

हमें अपनी व्यक्तिगत इन्द्रियों को संतुष्ट करने में प्रयास रत नहीं रहना चाहिए, बल्कि भगवान कृष्ण की इन्द्रियों को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। ” यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन है ”। अतएव हम सब को इसे अतिशीघ्र ग्रहण करना चाहिए और अपना जीवन सार्थक बनाना चाहिए।

(श्रीमद्भागवतम प्रवचन, ६.१.२६ — होनोलुलु, मई २६,१९७६) 

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