मेरा आशीष स्वीकार करें । प्रत्येक मन्दिर में अब आप जो भी उत्सव करें , वहाँ प्रसाद के वितरण के लिए पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए । आप दो या तीन प्रथम कोटि के रसोइये रख सकते हैं और उन्हें हमेशा रखना चाहिए । जब भी कोई अतिथि आये , उसे प्रसाद जरूर मिले । ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि रसोइया एक समय के लिए दस – बीस व्यंजन बनाएँ , जिनमें पूरी और सब्जी हो और आप उनके साथ हलवा , पकौड़े मिला सकते हैं । प्रबन्ध ऐसा हो कि आगन्तुकों को प्रसाद तुरन्त मिले । जब भी कोई भद्रजन आये , उसे प्रसाद तुरन्त दिया जाये । जब दस बीस व्यंजनों का प्रसाद वितरण हो रहा हो , तो रसोइयों को चाहिए कि आगे के दस – बीस व्यंजनो का प्रसाद तैयार करने में लगे रहें । यदि दिन के अन्त में कोई आता है , तो यह कहना ठीक नहीं होगा कि , ” प्रसाद समाप्त हो गया ” या ” अभी तैयार नहीं है ” या ” प्रसाद तैयार करने के लिए सामान नहीं है । ” ऐसी व्यवस्था कड़ाई से होनी चाहिए ।

मन्दिर का प्रबन्ध श्रीमती राधारानी , लक्ष्मीजी करती हैं ; अतएव किसी चीज का अभाव क्यों हो ? हमारा जीवन – दर्शन है कि यदि कोई आता है , तो वह प्रसाद ग्रहण करे , हरे कृष्ण गाए और प्रसन्न रहे । प्रत्येक वस्तु की आपूर्ति कृष्ण करते हैं , कृष्ण दरिद्र नहीं हैं । अतः हम आने वालों को कोई चीज देना मना क्यों करें ? इस नियम का पालन किसी भी मूल्य पर होना चाहिए । इसमें कोई कठिनाई नहीं है । इसके लिए केवल अच्छे प्रबन्ध की जरूरत है । दिन के अन्त में आप चीजें बेच सकते हैं , या यों ही दे सकते हैं ।

यदि हमारा विश्वास है कि कृष्ण प्रत्येक वस्तु देते हैं , या प्रत्येक व्यक्ति का भरण – पोषण करते हैं , तो फिर हम कंजूसी क्यों करें ? इसका तात्पर्य तो यह होगा कि हम कृष्ण में विश्वास नहीं करते या सोचते हैं कि हम ही सब कुछ करते हैं या हम ही आपूर्तिकर्ता हैं । हमें विश्वास है कि कृष्ण हर वस्तु की आपूर्ति करेंगे ! सारा संसार आये , हम उसे खिला सकते है ।अतएव इसे अच्छी तरह कीजिए । ऐसा करना तुरन्त आरम्भ कर दें ।

Source:
श्रील प्रभुपाद लीलामृत, प्रकरण 51, हरे कृष्ण गाएँ और संघर्ष करें

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