प्रभुपाद ने कहा , ” लोग कुछ वर्षों की इस अस्थायी जिन्दगी के लिए दिन-रत कड़ा परिश्रम करते हैं । यद्यपि इससे कम परिश्रम करके वे परमात्मा के पास वापस जा सकते हैं । एक अच्छी कार , एक सुन्दर स्त्री और कुछ संतानें लोगों को इतने कड़े परिश्रम से मिल पाती हैं । उसी परिश्रम से यदि वे कृष्णभावनामृत को समर्पित हों , तो वे परम धाम वापस जा सकते हैं , भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं । इसमें गलती किस बात की है ? यहाँ कितने ही कृष्णभावनाभावित भक्त हैं । इन कर्मियों से तुलना करने पर इनमें कमी क्या दिखती है ? क्या आप दुखी हैं ? आप क्या सोचते हैं ? उन कर्मियों के सारे प्रयत्न निष्फल हो जायेंगे और मृत्यु के बाद वे बिल्ली , कुत्ता या वृक्ष होंगे । ”
भक्त : ” श्रील प्रभुपाद , कभी कभी हम इसे बताते हैं और लोग समझ भी जाते हैं . फिर भी वे इस बारे में कुछ करते नहीं । ”
प्रभुपाद : ” आपको उन्हें हमेशा टोकते रहना चाहिए । ठीक वैसे ही जैसे जब कोई व्यक्ति सोता रहता है , तो आप उसे बार – बार जगाते हैं , ‘ श्रीमान जान , श्रीमान् जान , उठो, ओ शैतान , उठो । इस तरह क्यों पड़े हो ? मानव जीवन का यह सुनहरा अवसर तुम्हें मिला है । अब उठो और कृष्णभावनामृत अपनाओ और अपने जीवन की सभी समस्याएँ हल करो ।”
भक्त: “कुछ लोग कहते हैं कि यदि हम यह करना चाहते हैं , तो हम इसे बेशक करें लेकिन दूसरों को उपदेश न दें और उन्हें मजबर न करें । प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी ढंग होता है।
श्रील प्रभुपाद : ” किन्तु तुम मानव हो । शैतान , तुम सो रहे हो । हम तुम्हें जगाने की कोशिश कर रहे हैं । मान लो एक बालक मार्ग से हट रहा है और खतरे की ओर बढ़ रहा है । हम मनुष्य हैं , इसलिए हम कहेंगे , ‘ नहीं , नहीं , दाएं मार्ग पर चलो । ‘ हम उसे बचाने की कोशिश करेंगे । हमारा कार्य ही है दूसरों की भलाई करना । चैतन्य महाप्रभ का यही लक्ष्य है । यह नहीं है कि वह मनुष्य नरक में गिरने जा रहा है , उसे नरक में जाने दें । मुझे क्या , मैं तो प्रसन्न हूँ । ‘ यह दयालु भाव नहीं है । ”
भक्त : ” श्रील प्रभुपाद , वे प्रायः अनुभव करते हैं कि हम भौतिक संसार से पलायन कर रहे हैं । उनका कहना है कि हमारे पास कोई धंधा नहीं है और हमें जीविका के लिए कोई धंधा करना चाहिए । ”
प्रभपाद ( एक काल्पनिक प्रतिवादी को सम्बोधित करते हए ) : ” तुम अधम ! तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं – तुम धंधा करो । किन्तु हम धनवान लोग हैं । हम कृष्ण की संतानें हैं । तो हम , तुम्हारी तरह गधे जैसा काम क्यों करें ? गधा तो अनावश्यक रूप से कार्यरत रहता है । हम गधे नहीं हैं । ”
प्रभुपाद ने कहा : ” भगवद्गीता में प्रतिपादित है कि कृष्ण सभी के स्वामी हैं । अतएव कृष्ण के भक्तों से आशा नहीं की जाती कि वे गधों जैसा कड़ा परिश्रम करें । गधे कठोर परिश्रम करते हैं , मनुष्य नहीं । श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव का भी यही आदेश है । ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को बताया था कि मानव जीवन आहार और मैथुन के निमित्त कड़े परिश्रम के लिए नहीं है । वह सूअरों का धंधा है ।
प्रभुपाद : ” उनसे कहिए कि वे सूअरों जैसा परिश्रम कर रहे हैं । और हम मानवों का जावन बिता रहे हैं । यही अन्तर है । यदि कोई सूअरों जैसा कड़ा परिश्रम नहीं करता , तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि वह पलायन कर रहा है ? ”
श्रील प्रभुपाद उत्साहपूर्वक अपनी विचारधारा को पल्लवित करते रहे । वे बड़ी गंभीरता से तर्क कर रहे थे , फिर भी वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा कर रहे थे । वे प्रदर्शित कर रहे की परम ईश्वर का भक्त ही सौभाग्यशाली है । उनके साथ चलने और उनका कृष्ण – चेतन समझने की कोशिश करते हुए भक्तगण मुसकरा और हँस रहे थे ।
प्रभुपाद : “मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी था । हम मार्शल का सिद्धान्त पढ़ते थे । मार्शल कहता है की मानव प्रकृति ऐसी है की जब तक किसी व्यक्ति पर कोई जिम्मेदारी न हो, वह काम नहीं करेगा ।अर्थशास्त्र की शुरुआत यही है । यदि किसी के पास खाने को पर्याप्त है , तो वह काम नहीं करेगा । तो , यदि हमारे पास खाने को पर्याप्त है,तो हम काम क्यों करें ? इसका उत्तर क्या है ? यह पलायन करना नहीं है यह प्रकाश या ज्ञान पाने क सामान है। कार्य न करना और फिर भी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाना, यही सुख है । किन्तु जीवन की आवश्यकताओं मात्र के लिए घोर परिश्रम करना, यह सूअरों और कुत्तों का काम है । ”
भक्त : ” उनका विश्वास है कि यह नहीं हो सकता है । ”
प्रभुपाद : ” हे दुष्टात्मा ! तुम हम लोगों को देखो । अपनी आँखें खोलो । की हम किसी धंधे में नहीं लगे हैं । हमारे पास खाद्य सामग्री का भण्डार नहीं है । तब भी हम चिन्तित नहीं हैं । हमें मालूम नहीं कि शाम को हमें खाने को क्या मिलेगा, फिर भी हम चिन्तित नहीं हैं । मैं तुम लोगों के देश में बिना किसी सहारे के आया था ।” प्रभुपाद का तर्क था कि मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से गौओं और भूमि से हो सकती हैं । उन्होंने कहा कि अपने शरीर को कायम रखने के लिए मनुष्य ने अनावश्यक रूप से उलझन – भरी व्यवस्था बना रखी है ; इससे वह मानव जीवन के उद्देश्य को भूल गया है । जब एक भक्त ने दावा किया कि हर मनुष्य को भूमि प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता । तो प्रभुपाद ने कहा कि यह कुव्यवस्था के कारण है । अमेरिका में भूमि पर्याप्त है ।
भक्त : ” श्रील प्रभुपाद , लोग हम पर पराश्रयी होने का आरोप लगाते हैं । ”
श्रील प्रभुपाद : ” नहीं , पराश्रयी वह है , जो दूसरों की सम्पत्ति हड़प लेता है और उसे भोगने का प्रयत्न करता है । किन्तु हम दूसरों की सम्पत्ति नहीं भोग रहे हैं । हम अपने पिता की सम्पत्ति भोग रहे हैं । ईशावास्यम् इदं सर्वम् । कृष्ण स्वामी हैं । हमें पराश्रयी कयों कहते हो ? हम कृष्ण की अच्छी संतानें हैं । और कृष्ण कहते हैं , ‘ कार्य मत करो , मैं तुम्हें हर वस्तु दूँगा । ‘ वास्तव में कृष्ण कहते हैं कि ‘ तुम इतना घोर परिश्रम क्यों करते हो ? मेरे प्रति समर्पित हो जाओ और मैं तुम्हें संरक्षण दूंगा – जो भी वस्तुएँ तुम चाहते हो , मैं दूंगा। । अत : हम कृष्ण को अपना सभी कुछ समर्पित कर रहे हैं । हमें पराश्रयी क्यों कहते हो ?
भक्त भलीभाँति अवगत थे कि श्रील प्रभपाद परिश्रम करते थे । वे अपने विश्वव्यापी कृष्णभावनामृत संघ की व्यवस्था देखने के लिए अनवरत यात्रा करते रहते थे और नित्य आधी रात में उठकर श्रीमद्भागवत के अनुवाद में लग जाते थे । और उनके शिष्य भी कड़ा परिश्रम करते थे । लेकिन वे , पशुओं की तरह या पशु – मानव जैसा यथासमय नाशवान वस्तुओं के लिए कार्य नहीं करते थे । और वे ऐसे भयावह उद्योगों में अपने आपको नहीं लगाते थे , जिनसे मानव – प्रकृति का सर्वोत्तम भाग नष्ट हो जाता है । वे गधों की तरह कार्य नहीं करते थे कि यह दावा करें कि भगवान् के पवित्र नाम को भजने के लिए उनके पास दिन का कोई समय नहीं बचता हो ।
प्रभुपाद : ” यह एक सुन्दर पार्क है , लेकिन यहाँ कोई नहीं आता । हम कृष्णभावनाभावित लोग इसका लाभ उठा रहे हैं । तो वे पलायन कर रहे हैं या हम पलायन कर रहे हैं ? देखो , वे कितने मूर्ख हैं ! वे कितना घोर परिश्रम करते हैं , लेकिन इस पार्क का लाभ नहीं उठा रहे हैं । हम उठा रहे हैं । तो हमारी नीति यह है कि तुम कडा परिश्रम करो और हम जाकर तुम से लाभ लें । यह पलायन करना नहीं है , यह बुद्धि का काम है । ”
श्रील प्रभुपाद का उदाहरण भक्तों के लिए आह्लादकारी रहस्योद्घाटन था और इस स्पष्ट सच्चाई पर वे हँसने लगे । वे अपने गुरु महाराज के साथ पार्क में प्रसन्नतापूर्वक घूम रहे थे और अन्य कोई भी उस पार्क का आनन्द लेने नहीं आ रहा था ।
श्रील प्रभुपाद : “ किन्तु हम जैसे ही उनसे कहते हैं , ‘ आप भी आइये और हमारे साथ हो जाइए । ‘ तो वे ऐसा नहीं करेंगे । वे कहते हैं , ‘ नहीं , हम इस तरह काम करेंगे । हम हर एक से आने को कह रहे हैं , किन्तु कोई नहीं आता । यह उनकी ईर्ष्या के कारण है । इसीलिए वे कहते हैं कि हम पलायन कर रहे हैं और दूसरों की कमाई पर रहते हैं । वे देखते हैं कि हमारे पास कितनी कारें हैं और भक्तों के चेहरे चमक रहे हैं । हम अच्छे ढंग से खा-पी रहे हैं और हमारे पास कोई समस्या नहीं है । किन्तु यदि हम उनसे आने को कहते हैं , तो यह उनके लिए अत्यन्त कठिन हो जाता है । यदि हम उनसे हरे कृष्ण भजने और नृत्य करने को कहते हैं , तो यह उनके लिए बहुत कठिन और भारी काम हो जाता । ज्योंही वे हमारे पास आयेंगे उन्हें मालम हो जायेगा कि यहाँ न चाय है , न मदिरा है , न मांस है और न सिगरेट है । अत : कोई कह सकता है कि हम इन चीजों से पलायन कर रहे है । किन्तु हम प्रसन्नता से पलायन नहीं कर रहे हैं । प्रसन्नता से पलायन वे कर रहे हैं ।
(प्रभुपाद लीलामृत, प्रकरण ४६, अमेरिका में प्रचार -भाग १ )