पूर्व लेख में हमने देखा की केवल वेदपाठ करना पर्याप्त नहीं है, उसके अर्थ को जानने से ही पूर्ण लाभ प्राप्त होता है। षड वेदांग और पूर्वमीमांसा की मदद से उसके याज्ञिक अर्थ को जान सकते है। फिर हमने जाना कि वेदमंत्रों के तीन प्रकार के अर्थ – याज्ञिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक होते है । प्रायः इस तथ्य से अवगत न होने के कारन अधिकतर अनुवादक या भाष्यकारों के द्वारा वेदमंत्रों को सर्वांगी रूप से नहीं समझा गया। श्रीपाद् मध्वाचार्य (1218-1317 AD) ने ऋग्वेद के चालीस सूक्तो पर भाष्य लिखकर, इसके रहस्य को उजागर किया है ।
क्यों वेदों में बहुईश्वरवाद (अनेक देवी-देवता) है?
विभिन्न वेदमंत्रों में इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, विष्णु इत्यादि नामों का उल्लेख होता है. तो क्या वेद बहुईश्वरवाद का प्रतिपादन करता है? या क्या यह एक ही ईश्वर के लक्षणों के अनुसार भिन्न भिन्न नाम है ।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥ (ऋ सं 01-154-06)
“इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि परमात्मा के ही नाम हैं । वह परमात्मा ही गुरुत्मान और सुपर्ण कहलाते है । उसे ही यम, अग्नि और मातरिश्वा कहा जाता है । विद्वान् लोग उस एक का ही बहुत से नामों वर्णन करते हैं।” इस मंत्र से स्पष्ट है कि संपूर्ण वेद एक ही परम सत्य की ओर निर्देश करता है और वेदों का आध्यात्मिक अर्थ है । सपूर्ण ऋग्वेद में भगवान् की कीर्ति का गान है ।
कुछ अनुवादक ऐसी कल्पना करते है कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, विष्णु कोई व्यक्तित्व नहीं परन्तु परम सत्य के केवल लक्षण मात्र है । यह भी बहुत बड़ा भ्रम है । क्योकि वेदों के ऐतिहासिक अर्थ भी है इसीलिए इन नामों को सृष्टि की शरुआत से प्रारंभ हुई घटनाओं के सन्दर्भ में भी जानना चाहिए । इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि इत्यादि नाम के देव भी होते है और यह नाम परमेश्वर के लक्षणों को भी इंगित करते है।
संपूर्ण वेद परम सत्य का प्रतिपादन करता है
तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति हास्य ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।
तत्रापरा । ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यय तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुण्डकोपनिषद् (१.४-५)
अंगिरस ने उनसे यह कहाː दो प्रकार की विद्याऐं हैं जो जानने योग्य हैं, जिनके विषय में ब्रह्मविद्-ज्ञानी बताते हैं, परा तथा अपरा। उसमें अपरा है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष । और परा विद्या वह है जिससे ‘अक्षर तत्त्व’ का ज्ञान होता है।
वास्तव में संपूर्ण वेद ही पराविद्या का स्रोत है । कर्मकांड, ज्ञानकाण्ड जैसे अलग से कोई विभाग नहीं है । संपूर्ण वेद का तात्त्विक या आध्यात्मिक अर्थ है, जिससे परम भगवान् का ही गुणगान किया गया है ।
- वेदैश्च सर्वैः अहमेव वेद्यः (भगवद्गीता १५.१५)
– सब वेदों के द्वारा जानने योग्य विषय मैं हूँ
- वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।
– वेद, रामायण, पुराण और महाभारत आदि समस्त शास्त्रों के आदि, मध्य और अन्त में सर्वत्र एकमात्र पापतापहारी भगवान हरि के ही गुण, लीला आदि का गान है
- एवं नानाविधैः शब्दैः एक एव त्रिविक्रमः। वेदेषु सपुराणेषु गीयते पुरुषोत्तमः (ब्रह्माण्ड पुराण)
- वेदोंमन्त्रों और पुराणों में इस प्रकार अनेक प्रकार के शब्दों के द्वारा त्रिविक्रम पुरुषोत्तम ही गाये गये है।
- सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
– सब वेद सर्वाश्रय भगवान का ही प्रतिपादन करते हैं
- सर्वनामा सर्वकर्मा सर्वलिङ्ग: (मुण्डक उपनिषद)
– परब्रह्म सर्वनाम (सभी नामों के द्वारा प्रतिपाद्य) है, सर्वकर्म है तथा सर्वलक्षणों से युक्त है”
वेदमंत्रों के अर्थ करने के लिए सिर्फ शाब्दिक अर्थ पर्याप्त नहीं है परंतु अर्थघटन के लिए उपक्रम, उपसंहार इत्यादि की मदद से उसके गूढ़ अर्थ को जानना चाहिए । उदाहरण के लिए वेदांत सूत्र के आकाशाधिकरण में आकाश शब्द का अर्थ सामान्य आसमान नहीं है परन्तु परम सत्य है, और इसका प्रमाण इस श्रुति में है – स एष परोवरीयान् । इस प्रसंग में सामान्य अर्थ का त्याग करके आंतरिक अर्थ को ग्रहण करना चाहिए । इन्द्र, अग्नि इत्यादि देवताओं के कर्मकांडपरक अर्थो के साथ उन देवताओं में स्थित अंतर्यामी परमात्मा को भी मन में दृढ़भूत करना चाहिए और उन शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट परमात्मा के लक्षणों पर भी मनन करना चाहिए ।
जहाँ कही भी वेदपुराणादि शास्त्रों में विष्णु के अतिरिक्त अन्य देवताओं का परमतम रूप में स्तवन देखा जाता है, वहाँ उन सूर्यब्रह्मरुद्रेन्द्रादि देवताओं के हृदयाकाश में अन्तर्वर्ती परमात्मा के रूप में स्थित विष्णु का ही स्तवन अभिप्रेत है ।
वेदमंत्रों में प्रयुक्त नामों के मुख्य एवं गौण अर्थ और उसके द्वारा भगवान् विष्णु का ही प्रतिपादन
भालवेय श्रुति के अनुसार वेदों में प्रयुक्त सभी नाम मुख्यरूप से भगवान् विष्णु को और गौणरूप से देवताओं को इंगित करते है । जैसे की रूद्रसूक्त में रूद्र शब्द मुख्यरूप से विष्णु को और गौणरूप से शिव को इंगित करता है ।
नामानि विश्वाऽभि न सन्ति लोके यदाविरासीदनृतस्य सर्वम् ।
नामानि सर्वाणि यमाविशन्ति तं वै विष्णुं परममुदाहरन्ति ।
यदि वेदमंत्रो में प्रयुक्त नाम को विभिन्न देवों के माने जाये तो भी भगवद्गीता के अनुसार वह सब भगवान् की विभूति मात्र है । इस प्रकार गौणरूप से भी देवताओं के देवों के नामों के द्वारा “भगवद-विभूति-रुपत्व” के कारण वह सब भगवान नारायण को ही इंगित करते है।
छान्दोग्योपनिषद् (१.६.६) अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते । सूर्य के अन्दर वह हिरण्यमय पुरुष दिखाई देता है । इस श्रुति में अंतर्यामी परमात्मा का वर्णन है। भगवद्-अन्तर्यामीत्व के कारण सभी देवों में अंतर्यामी के रूप में नारायण ही है । इसीलिए जब देवों की स्तुति होती है तो वास्तव में वह अंतर्यामी परमात्मा भगवान् विष्णु के लिए ही होती है ।
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डॉ. दामोदर चैतन्य दास , Mo. 8401943286, dcdas.bvks@gmail.com