आज के सभ्य समाज की पीढ़ी अपने से पहले की पीढ़ी को कम समझदार, असभ्य एवं गँवार समझती है। जिसके कारण आधुनिक तथाकथित सभ्य पीढ़ी अपनी परम्परा व संस्कृति को ठुकरा कर पढ़ाई से लेकर नौकरी तक महानगरों से लेकर विदेशों में भी जाने के लिए तैयार हैं। जिसके कारण हमारे देश की संस्कृति परम्परायें टूट रही है। संयुक्त पारिवारिक जीवन खत्म हो चुके हैं। माता पिता बच्चों को बोझ लगते हैं। जबकि हमारी संस्कृति में तीन चार पीढ़ी तक के लोग एक साथ रहते थे। यदि परिवार में कोई समस्या भी होती थी तो छोटी पीढ़ी केे सदस्यों को तो उसका कोई अनुमान ही नहीं होता था। बड़े ही उस समस्या से निपट लेते थे। तो हम किसे प्रगतिशील समाज कहेंगे ? उसे जहाँ आज अपने एक या दो बच्चों का लालन-पालन करने के लिए नौकरियाँ करने वाले माता-पिता के पास समय ही नहीं है तथा बच्चा क्रंच (झूलाघर) में पलकर बड़ा होता है या उसे, जहाँ बच्चों को संयुक्त परिवार में इतना प्रेम मिलता था कि काफी समय तक उन्हें यह ही नहीं पता चलता था कि उसके जन्म देने वाले माता-पिता कौन हैं? यह प्रगति नहीं, अपितु दुर्गति है|

वास्तव में वैदिक संस्कृति ज्यादा प्रगतिशील थी। जिसमें संयुक्त परिवार एकजुट होकर आने वाली कठिनाइयों को बड़ी सरलता से पार कर लेते थे। आज आधुनिकता की होड़ में हमारे पास भगवद् गीता एवं रामायण पढ़ने का तनिक भी समय नहीं है। क्योंकि हमारा अधिकांश खाली समय स्मार्टफोन चलाने, टीवी में फिल्म एवं सीरीयल देखने में निकल जाता है। जिस घर में कम से कम दो से चार सदस्य भी हैं, वहाँ भी आपसी प्रेम और सौहार्द व्यवहार खत्म होता जा रहा है। अपने परिजनों की प्रसन्नता के लिए कष्ट कोई भी उठाना नहीं चाहता है। आज हमें अपने वास्तविक वैदिक संस्कृति की ओर लौटने की आवश्यकता है, वरना आगे होने वाले दुष्परिणाम हमें भुगतने होंगे। हमें कैसे जीवन जीना है, यह हमें प्रामाणिक गुरू की शरण लेने तथा शास्त्रों को पढ़ने से पता चलेगा। ऐसा धर्मयुक्त जीवन सुख, शांतिमय और आनंद से परिपूर्ण होगा।

हरे कृष्ण !!!

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